Sunday, 12 July 2020

महारास लीला 

बोले श्री शुकदेव ने ,राजन  ! हरि मृदु बैन /
सुन सखियाँ प्रमुदित हुईं ,आया मन को चैन // १//

सुन्दरता निधि संग से ,हुआ मनोरथ पूर्ण /
प्राणों से प्रिय को परश कर,हुईं सखी सम्पूर्ण  //२//

कृष्ण सेविका गोपियाँ ,और प्रेयसी संग /
गलबहियाँ डारे खड़ीं ,हिय उठ रही तरंग //३//

सखिरतनों  के संग में ,श्रीकृष्ण भगवान /
रमणा रेती पर रचा ,रास नृत्य अभियान //४//

हर दो गोपी मध्य हरि ,गले में बाँहें डाल /
प्रगटे, रहे रहस्यमय ,गोपी हुईं निहाल //५//

यद्यपि प्रगटे कृष्ण जी ,सखि  गणना अनुरूप /
सब सखियों को दिख रहा ,केवल एक स्वरूप  //६//

सखियों के मन में यही , होता था आभास /
उनके प्यारे कृष्ण तो,हैं उनके ही पास // ७//

हुये सहस्त्रों गोपियों ,मध्य सुशोभित श्याम /
रास बिहारी ने किया ,दिव्य रास आयाम //८//

सुरयानों  की लग गई  ,नभमंडल में भीर /
निज निज  पत्नी  संग सुर ,प्रकटे  धरे शरीर // ९// 

रासोत्सव को देखने ,नैना हुये अधीर /
मन उनके वश था  नहीं ,बने  देव कुछ  कीर // १०//

लता ,हिरण,  हिरणी बने ,कुछ सुर पक्षी वृन्द /
बजीं दुन्दुभी  स्वर्ग की ,उमगा हिय आनन्द // ११//

देव पुष्प वर्षा करें ,छिड़ा मधुर संगीत /
गन्धर्वों सँग पत्नियों , मिल कर गातीं गीत // १२//

लगा कृष्ण सँग नाचने ,सारा गोपी वृन्द /
बजतीं धुन में तालियाँ ,छलक रहा आनन्द //१३//

कंगन, करधन ,पायलें,करतीं छुन्नक छुन्न /
मंजीरे स्वर-ताल   में ,करते किंनक किंन्न //१४//

अगणित सखि  आभूषणों, की ध्वनि करे विभोर /   
कृष्ण मुरलिया खींचती ,मन को अपनी ओर  //१५//

स्वर्णमणिंन के मध्य ज्यों ,नीली शोभावान  /
वैसे ब्रज सखि मध्य में ,शोभित कृपानिधान //१६//

मगन सृष्टि के जीव सब ,सुन मुरली की तान /
सखि फिरकी सी घूमतीं ,तन, का भूला भान //१७//

कभी पैर आगे धरें ,फिर पीछे हो जायँ / 
झूम झूम कर नाचतीं ,कटि  उनकी बल खायँ //१८//

कभी नचातीं नैन  वे ,कभी चलातीं सैन /
करके तिरछी भौंह से, बोल रही थीं बैन //१९//

पवन लटों से खेलती ,झुमके चूमें गाल /
जब जब  झूमें कुच  हिलें , पग से देतीं  ताल //२०//

बूँदें झलकीं   स्वेद की ,मुखमंडल में आय /
थकीं गोपियाँ शीश को  , हरि से लिया टिकाय //२१//

जैसे जलनिधि में उठें ,रह रह नीर तरंग /
वैसे सखियों के हृदय ,उठती नृत्य उमंग //२२// 

टूट टूट गजरे झरें ,बिखरी  सुमन सुगंध /
रस लोभी भँवरे उड़ें ,छूटें  नीवी बंध //२३//

श्याम घटायें चाँद पर ,ज्यों आकर छा जायँ /
वैसे केशों की लटें ,गालों पर लहरायँ //२४//

अधर मधुर मुस्कान भर, देखें हरि की ओर /
ज्यों रजनी में चाँद को,अपलक लखे चकोर //२५// 

नृत्यलीन   गोपाल जी   ,लगते  घन से श्याम /
गोरी सखियाँ दामिनी , सोहें रजनी याम //२६// 

गोपी जीवन प्रेम है ,कान्हा परमानन्द /
मोहे खग, नर , नाग सब ,फैला सर्वानंद //२७//

नृत्य गान में  कृष्ण से,  सट सखि   पातीं हर्ष  /
हुईं परम आनन्दमय , पाकर हरि  संस्पर्श //२८//

वही  राग औ रागिनी ,गान और स्वर साज /
भक्तिभाव रस से निकल  ,गूँज रहे  हैं आज //२९//

कृष्ण संग कुछ गा  रहीं,ऊँचे स्वर में गीत /
उनके स्वर आलाप सुन,वाह कहें मनमीत //३०//

ध्रुपद राग में दूसरी ,ने छेड़ा संगीत / 
वाह वाह श्री कृष्ण ने, कहा, लिया मन जीत //३१//

नृत्य करते एक को , लगने लगी थकान /
कंगन ,गजरे पड़ गये  ,ढीली रहा न ज्ञान //३२//

वेणी से झरने लगे ,बेला के मृदु  फूल /
नृत्य गान में गिर गया, तन से खिसक  दुकूल //३३//

बगल खड़े श्रीकृष्ण की, सखी ने थामी बाँह /
एक अन्य को दे रखी ,पहले ही निज  छाँह //३४//

उनकी सुन्दर  बाँह थीं , दोनों चन्दन युक्त /
वे सखियाँ भी  हो गईं ,उस सुगन्ध से सिक्त //३५//

तन अरु  मन पुलकित हुये ,लिया बाँह झट  चूम /
मधुकर जिनकी चाह में , भक्त रहे हैं  झूम //३६//

एक लीन  थी नृत्य में ,झूलें कुंडल लोल /
दर्शक रीझें देख  छवि , सुन्दर लगें कपोल //३७//

उनको   कृष्ण कपोल से, उसने दिया सटाय /
हरि ने  मुख का  पान ले ,उसको दिया खिलाय //३८/

नाच रही थी एक सखी  ,कर नूपुर झंकार /
थकी ,बगल में थे खड़े,उसके प्राणाधार //३९// 

उनके तन से टिक गई,  फिर ले उनका हाथ /
अपने कुच  पर रख लिया  , झुका लाज से  माथ //४०//

राजन !मिला न लक्ष्मी, को वह परमानन्द  /
जैसा सखियाँ ले रहीं ,हरि के सँग स्वच्छन्द //४१//

लक्ष्मी जी से श्रेष्ठ है ,सखियों का संयोग /
प्रेम तत्व रस पा रहीं ,जिसका बने न योग //४२//

कृष्ण को प्रियतम रूप में ,पाकर हो स्वच्छन्द /
करने लगीं विहार सब,मुखरित होते छन्द //४३// 

सारी सखियों के गले ,पडी कृष्ण करमाल /
अद्भुत शोभा हो गई ,उनकी हे महिपाल  //४४//

सरसिज कुंडल कान में ,लगते अति कमनीय /
घुँघराली लट  गाल पर,   झलक रहीं  रमणीय //४५//

लगीं छलकने स्वेद की, बूँदे मुख में आय /
छटा निराली हो गई ,वह  छवि बरणि न जाय //४६//

सब सखियाँ थीं नृत्य में ,लीन कृष्ण के सँग /
ध्वनि नूपुर ,कंगन करें ,चढ़ा रास  रस रंग //४७//

वेणी से बेला झरें ,बिखरी  सुमन  सुगंध /
पुलिन मंच सुरभित हुआ ,खुले केश के बंध //४८//
  
उस अदभुत स्वर ताल में,अपना राग मिलाय /
झूम झूम हर फूल पर , मधुप रहे मन्नाय //४९//

परछाईं से खेलता,शिशु ज्यों रहित विकार /
वैसे सब सखि संग में ,हरि  करते खिलवार //५०//

हृदय लगाते थे कभी , करें अंग स्पर्श /
तिरछी चितवन कर बिहँस,उपजाते हिय हर्ष //५१//

इस प्रकार हरि ने किया,सखियों संग विहार /
सुनो परीक्षित देव गण,वह छवि रहे निहार //५२//

हरि के अंग स्पर्श से,सखियाँ  भईं निहाल  /
केश खुले,तन पर  नहीं ,चोली  सकीं सम्भाल //५३//

अस्त-व्यस्त गहने बसन,गई देह सुधि  भूल /                       
मालाओं से गिर गये, टूट टूट के फूल //५४// 

कृष्ण रास लीला निरख, भाव हुये  उन्मुक्त / 
देवि स्वर्ग की  हो गईं, मिलन कामना युक्त //५५//

दृश्य देख यह चन्द्रमा ,गृह,उड़गण समुदाय /
सभी अचंभित रह गये,छवि वह वरनि न जाय //५६//

कृष्ण स्वयं में पूर्ण हैं ,सुनो परीक्षित भूप /
तब भी जितनी गोपियाँ,उतने धरे स्वरूप //५७//

  श्रमकण छलके नृत्य से , बीती सारी रैन / 
श्रीकृष्ण मुख पोंछते,मूँदें सखियाँ नैन ५८// 

हरि करकमल स्पर्श से,तन की मिटी थकान /
आनन्दित सखियाँ हुईं,खिली अधर मुस्कान //५९//

सोने के कुण्डल ललित,शोभा रहे बढाय  / 
घुँघराली अलकावली,रहीं गाल पर छाय //६०// 

तिरछी चितवन से किया,सखियों ने सम्मान /
 सब मिल कर करने लगीं,हरि लीला गुणगान //६१//

थका हुआ गजराज ज्यों,सरित तीर कर भंग /  
 कर प्रवेश जल राशि में ,खेले हथिनी संग //६२//

वैसे वेदों से परे, श्रीकृष्ण अखिलेश /
सब सखियों के संग में ,जल में किया प्रवेश //६३//

सखि घर्षण से कृष्ण की, चिपट गई वन माल /
वक्षस्थल से लग हुई,वह  केशर सी  लाल //६४// 

मन्नाते भौंरे उड़ें ,ऐसा होता भान /
गाते  हों गन्धर्व ज्यों,श्री कृष्ण यश गान //६५//

जल क्रीड़ा करने लगीं ,सखियाँ हे भूपाल /
हरि पर नीर उलीचतीं ,हँसी न सकीं सम्हाल //६६//

चढ़े यान सुर ले रहे ,हरि लीला आनंद /
बरसाते नभ से सुमन , गाते मनहर छन्द //६७//

इस प्रकार श्रीकृष्ण ने, जल में किया विहार /
ज्यों हथिनी के वृन्द सँग ,गज करता खिलवार //६८//

सखियों, भौरों से घिरे,श्रीकृष्ण भगवान्  /
निकल यमुन जल से किया, जंगल को प्रस्थान  //६९//

दृश्य बड़ा रमणीय था, जल, थल में थे फूल /
सुमन सुगंध बिखेरती ,चले पवन अनुकूल //७०//

जैसे हथिनी वृन्द सँग,वन विचरे गजराज /
वैसे ही हरि शोभते ,सुनो परीक्षित राज //७१//       

शरद पूर्णिमा में हुईं  ,बहुत रात्रियाँ  एक /
जिसका वर्णन आज तक, करते काव्य अनेक //७२//

हुई रजत सी चाँदनी,शोभा अति कमनीय / 
उपमा दे दे कवि थके ,छवि वरणत रमणीय //७३//

उस रजनी में प्रेयसी, सखियों सँग भगवान /
चिन्मय लीला से किया,पूर्णकाम सज्ञान //७४//
 
काम भाव अरु चेष्टा, कर अपने आधीन /
सब सखियों को कर लिया,बंशी धुन में लीन //७५//

               परीक्षित उवाच 

प्रश्न परीक्षित ने किया ,हे भगवन शुकदेव /
एकमात्र श्री कृष्ण ही ,हैं त्रिभुवन के देव //७६ //

निज अंशी बलराम सँग,हरने भुवि का भार /
धर्म स्थापन के लिये ,लिया पूर्ण अवतार //७७//

कृष्ण स्वयं में पूर्ण हैं ,नहीं किसी की चाह /
सर्वात्मा भी हैं वही ,मिली न उनकी थाह //७८// 

मर्यादा अरु धर्म के ,रक्षक श्री भगवान् /
स्वयं धर्म विपरीत क्यों ,कर्म किया श्रीमान //७९//

परनारी संस्पर्श कर ,फिर क्यों तोड़ी आन /
मम संदेह मिटाइये ,विप्रदेव  मतिमान //८०// 

               शुकदेव उवाच 

सुन राजन के ये वचन ,बोले श्री शुकदेव /
जग पालक सृष्टा अरु ,संहारक महादेव //८१ //

सूर्य अग्नि अरु देवता ,जो सब भाँति समर्थ /
जन हित कारण धर्म से ,रखें न कोई अर्थ //८२ //

इस सांसारिक कर्म से,उन्हें न लगता दोष /
ज्यों पावक सब भस्म कर ,रहता है निर्दोष  //८३ //

हरि  के प्रति यह सोचना ,भी है राजन पाप /
सूर्य,अग्नि में ब्याप्त है ,जिनका प्रखर प्रताप //८४ //

निज माया संयोग से ,धर कर भिन्न स्वरूप /
लीला करते कृष्ण जी ,सुनो परीक्षित भूप //८५ //

जहर हलाहल पी गये,शिव की शक्ति महान /
हो जाएगा भस्म वह ,अन्य करे यदि पान //८६ //

जिसमें है सामर्थ्य वह ,होता अहं विहीन  /
स्वारथ नाता विश्व से ,वह नहिं रखे प्रवीन //८७//

दोष उन्हें लगता नहीं ,जो कर्तत्व विहीन /
वे निमित्त बन कर्म सब ,करें राग से हीन //८८//

अचर सचर सब में वही ,सर्वेश्वर भगवान् /
मानव कर्मों से परे,उनकी सत्ता जान //८९//

वे अविकारी ब्रम्ह हैं ,धरे मनुज का रूप /
वही ब्यक्त अब्यक्त हैं ,वे ही विश्व स्वरूप //९०//

जिनकी पदरज प्राप्त कर ,मिले तृप्ति आनंद /
योग क्रिया से योगिजन ,काटें भव के फंद //९१//

तत्वरूप हों ज्ञानिजन,जिनका तत्व विचार /
कर्म बन्ध की कल्पना ,ही उनकी बेकार //९२//

 जीवों पर करने कृपा,लेते हरि अवतार /
लीलायें लख भक्तगण,निज को देते वार //९३// 

वे ही आत्मारूप में ,सबमें रहे विराज /
गोप गोपियों में वही ,सुनो परीक्षित राज //९४//

गोप देखते कृष्ण को ,दोषबुद्धि से हीन /
उनको दिखतीं गोपियाँ, गृह कारज में लीन //९५ //

हरि की माया ही  उन्हें ,करा रही आभास /
उनकी प्यारी पत्नियाँ ,दिखतीं उन्हें सकाश //९६ // 

ब्रम्ह रात्रि सम हो गये  ,उस रजनी के  याम /
भोर हुआ हरि गोपियाँ ,भिजवाये ब्रज धाम //९७ //

सुनो परीक्षित !जो करे, रास नृत्य गुणगान /
औ हरिलीला भक्त जो,श्रवण करे धर ध्यान //९८ //

परा  भक्ति श्रीकृष्ण के, चरणों की पा जाय /
सब विकार मन के मिटें,मधुकर हरि रस पाय //९९ //

                           डॉ  उदयभानु तिवारी मधुकर 
                            दत्त एवेन्यू फ्लैट न० ५०१ 
                            नेपियर टाउन जबलपुर 
                             मो० ९४२४३२३२९७