Monday, 24 May 2021

अमृत वाणी (आदि सृष्टि वर्णन )

अमृत वाणी (आदि सृष्टि वर्णन ) कह के मधुकर बात ज्ञानकी अंतःकरण जगायेगा | अगर नहीं अनुराग हृदय में कुछ भी समझ न आएगा || कौन मूल है ब्रम्हा का भी किसने जगत रचाया है | है अनन्त ब्रम्हाण्ड ये किसका ,अन्तन कोई पाया है || उस ईश्वर की छवि मनहारी ,जिसमें ध्यानी खो जाता | उसमें जो रस पाता उसको फिर यह जगत नहीं भाता || उन भावों के शब्द विहग ,मधुकर मन में कलरव करते | जब आता अनुराग हृदय में पंक्ति बद्ध होकर झरते || व्याप्तब्रम्हजो कण-कण में,अद्वैत,अलख नभप्रतिछाया | बनूँ अनेक एक से बढ़ ,संकल्प किया प्रगटी माया || क्षीर सिन्धु निर्माण किया ,सत सगुण रूप में जब आया | शेषनाग की सैया पर ,श्री विष्णु रूप निज झलकाया || हुये चतुर्भुज चक्रसुदर्शन ,गदा,पद्म अरु शङ्ख लिये | योग क्रिया विस्तारी ,रजगुण तमगुण को साकार किये || करने जग विस्तार नाभि से ,नीरज एक निकल आया | चतुर्मुखी ब्रम्हा ने उस पर ,अपने को बैठा पाया || कमलासीन हुये ब्रम्हा के मन में यह विचार आया | मैं हूँ कौन और यह अम्बुज ,निकल कहाँ से विकसाया || चले खोजने मूल कमल का ,उसका अन्त नहीं पाया | तब आ बैठे पुनः कमल पर ,ध्यान भाव मन में आया || देखा ध्यान लगाकर नीरज ,विष्णुनाभ से आया है | पाया यह संकेत ध्यान में ,जग हित तुम्हें रचाया है || किया सृष्टि की रचना इससे ब्रम्हा सृष्टा कहलाया | कर्मों पर आधारित फल सब ,निज रचना में वह लाया || सत ,रज,तम ये तीनों गुण में ,उसकी अद्भुत है माया | रहे याद ना पूर्व जन्म की ,इस कारण जग भरमाया || योगेश्वर की अमृतवाणी ,कर स्थिर चित सुन लेना | अगर ईश में श्रद्धा है तो भावसुमन कुछ चुन लेना || सृष्टि ईश का कम्प्यूटर है ,प्राणी प्रोग्राम उसका | पूर्वकर्म ने उसे बनाया ,मन संचालक है तन का || लिखा भाग्य में जो प्राणी के ,सुफल ,कुफल वह पाता है | और प्राप्त करने की इच्छा ,से जग में बँध जाता है || इच्छायें ही बंधन हैं ,मानव से कर्म कराती हैं | पूर्व कर्मफल पर आधारित ,जग में मंच दिलाती हैं || प्रोग्राम प्राणी में है जो, वह बदला ना जायेगा | चाहे जितना जोर लगाले ,पिछले फल तो पायेगा || नहीं दैव के वश में कुछ भी ,मन फल का निर्माता है | दैव न कोई दुःख मिटाये ,वह तो भोग प्रदाता है || सुख पाने की चाहत तन से ,जितने कर्म करायेगी | उतने ही गहरे ये मन को ,दुनियाँ में उलझायेगी || करते जो सत्संग भजन में ,अपना ध्यान लगते हैं | किन्तु भोग की इच्छाओं को ,मन से त्याग न पाते हैं || वही स्वर्ग में जाकर देवों ,के दुर्लभ फल पाते हैं | पुण्य क्षीण होते ही धरती ,में वापस गिर जाते हैं || कौन देह के अन्दर रहता वह क्या कर्म कराता है | कहता हूँ आगे प्राणी से ,गुण क्या क्या करवाता है || मन रहता है तन के अन्दर ,भोग देह के पाता है | इसे न देखे जग में कोई ,तन रथ यही चलाता है || यह मन ही सब दुख का कारण,ये जिसमें राम जाता है | उससे ही प्रेरित होकर यह ,तन से कर्म कराता है || मन आत्मा के संग रहे जो ,वही अमरता पाता है | फँसे कुसंगति में तो आत्मा ,पतन मार्ग में जाता है || सतगुण सत के पंथ लगाए यही स्वर्ग ले जाता है | गुणातीत निस्पृह प्राणी तो ,निगुण ब्रम्ह्पद पाता है || रजगुण भोगासक्त कराये ,कर्म सकाम कराता है | विषय भोग में मन उलझा कर और और ललचाता है || बढ़े मोह मत्सर प्राणी में ,अहंकार प्रगटाता है | स्वार्थ भावना मन में आये ,सबसे द्रोह कराता है|| रजगुण के आकांक्षी दुख से ,मुक्त नहीं हो पाते हैं | यहीं जन्मते मरते नाना ,तन में आते जाते हैं || तमगुण ढाँके ज्ञान जीव का नीद प्रमाद बढाता है | क्रोधी ब्यसनी यही बनाए,बुद्धि विवेक नशाता है || तमोगुणी मानव का तन तज ,अधम योनियों में जाते | कीट पतंग अचर बनकर वे ,जन्म मरण का दुख पाते || आत्मा रथी सारथी यह मन ,जब अपने वश ना आये | घोड़े तन की सभी इन्द्रियाँ ,उनसे यह मन रस पाये || जिस इन्द्रिय में मन सुख पाए ,लिप्त उसी में हो जाता | यही विषय हैं कारण जिससे ,प्राणी नया जनम पाता || जिन विषयों में मन रम जाता ,फल उसका ही पाता है | पूर्व कर्म निज भूला बन्दा ,दैव को दोष लगाता है || जैसे कर्म करोगे वैसे कर्ता बन कर आओगे | वैसे ही संयोग बनेंगे ,वैसे ही फल पाओगे || डॉ उदयभानु तिवारी मधुकर उदयभानु तिवारी मधुकर ५०१ दत्तएवेन्यू अपार्टमेंट नेपियर टाउन,जबलपुर मो० ९४२४३२३२९७