Friday, 30 September 2011

पथिक


जीव पथिक है इस देही में ;तन त्यागे तो मत रोना /                                                                    
लौट जगत में जब आएगा ;होगा तपा हुआ सोना //

जीव देह में जब तक रहता ;  हँसता   रोता  गाता   है
देह बंध से छूट गया तो ;नहीं   किसी   से     नाता     है
इस नश्वर तन के हित बन्दे ;कभी न तुम विचलित होना
जीव पथिक है इस देही में ;  तन  त्यागे   तो  मत रोना //१//

कर्मों के फल सँग सँग चलते ;संचित धन नहिं चलता है
जो कुछ दान किया है जिसने ;  वह उसको ही मिलता है
यह जग है माया का फंदा ;मोह   निशा   में   मत सोना
जीव पथिक है इस देही में ;  तन   त्यागे   तो मत रोना //२//

जग के फल आकर्षित करते ;   अंत   सभी के दुखदाई
इससे इनको त्याग भजन कर परम ब्रह्म जो   सुखदाई
जिससे चमक रहा तेरे अन्दर ;अन्दर का कोना कोना
जीव पथिक है इस देही में ;तन त्यागे   तो    मतरोना //३//

जन्म मरण सबको दुखदाई ;तन ही जग   का बंधन है
 सत;ऱज ;तामस गुण में ही तो सब जग करता क्रंदन है
इससे मुक्ति चाहते हो तो;   गुण  में  लिप्त  नहीं    होना
जीव पथिक है इस देही में; तन त्यागे  तो   मत   रोना //४//

जग में रह विरक्त हो बन्दे ;  जाग    उसे    ही   पाने को
जो जग में है व्याप्त बुलाता; निज  में तुझे    मिलाने को
मधुकर वह सदगुरु बन आता ;उसकी संगत मत खोना                                                                         जीव पथिक है  इस देही में;  तन त्यागे तो   मत   रोना  //५ // 
उदयभानु तिवारी "मधुकर"                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                   

अधियज्ञ

                                                                                                                                              
        अधियज्ञ
तुमहो प्रभु अधियज्ञ  ;यज्ञ हम  करते तुमको पानेको /
तुमही जग में व्याप्त मगर जग जाने नहीं ठिकाने को//

तुमहो पुष्प पराग तुम्हीं से
              यह तन चेतन होजाता/
जबतक है अज्ञान ह्रदय में ;
              प्राणी नहीं समझ पाता//
जब उपजे अनुराग तड़पता ;मन तुममें मिलजाने को /
तुमहो प्रभु अधियज्ञ ;यज्ञ हम करते तुमको पानेको //१//

होकर प्रक्रति अधीन लोभ में ;
                  ज्ञानी मोहित हो जाते  /
सदगुरु बन तुम सँग रहो ;
                  तबही माया से बच पाते //
हे जग पालक वन्दन करता हूँ मैं तुम्हें रिझाने को /
तुमहो प्रभु अधियज्ञ यज्ञ हम करते तुमको पानेको //२//

जैसे शीत लहर में सागर
               हिम में परिणित होजाते /
वैसे ही तुम भावभक्ति से;
              दिव्य अलख छवि दिखलाते //
सूक्ष्म जगत से तुम सदगुरु बन आते मार्ग दिखानेको /
तुमहो प्रभु अधियज्ञ यज्ञ हम    करते  तुमको पानेको //३//

जैसा जिसका भाव रूप में;
                     वैसे ही तुम ढलजाते j
तुमहो निर्गुण किन्तु भक्ति में ;
                     सगुण रूप धरकर आते //
हे योगेश्वर मधुकर गुन्जन करे अमिय छलकाने को/
तुमहो प्रभु अधियज्ञ यज्ञ हम करते तुमको पानेको //४//

सरस्वती आवाहन

                                          सरस्वती आवाहन
हे हंस वाहिनी   सरस्वती  हम  करते  माँ    तेरा         वन्दन /
कर ज्योति प्रज्ज्वलित सुमन लिए कर रहे तुम्हारा अभिन्दन//
आजाओ आसन ग्रहण करो दो   शक्ति   बढे मन  का   स्यंदन/ 
हे हंसवाहिनी   सरस्वती  हम  करते  मन   तेरा         वन्दन //

तन श्वेत वस्त्र निर्मल काया ;द्युति चन्द्र छटा सी अविकारी /
कमलासन शोभित शीश मुकुट ;कर में वीणा छवि मनहारी//
हे वीणावादिनी आ  जाओ बनजाओ   माँ   चित का चन्दन /
हे हंसवाहिनी   सरस्वती  हम  करते माँ    तेरा     वन्दन //१//

तुम बुद्धि दायिनी देवी हो ;  अरु   अंतर्मन   की   तमहारी
दो ऐसा ज्ञान प्रकाश हमें ;विकसे हिय कुमुद कली प्यारी
माँ चन्द्रकान्तिके आजाओ  ;स्वर निखरे भाव बने कुंदन
हे हंसवाहिनी   सरस्वती  हम  करते माँ    तेरा     वन्दन //२//

तुम राग रागिनी स्वरलहरी ;शब्दों    की  तुम  हो फुलवारी /
हो वेद मंत्र की शक्ति तुम्हीं  ;गन्धर्व ; दैव  ; मुनि बलिहारी //
माँ छेड़ो ऐसी तान खिले;    जन मानस का हिय  नन्दनवन  /
हे हंसवाहिनी   सरस्वती  हम  करते माँ    तेरा     वन्दन //३//

हैं तुम बिन कलाविहीन सभी ;ज्यों नयनकोर बिन कजरारी /
हो मधुकर पुष्पपराग तुम्हीं ;प्रिय काव्यसुधा रस मनहारी //
आजाओ माँ अब मधुकर मन रस पीने को करता गुन्जन /
हे हंसवाहिनी   सरस्वती  हम  करते माँ    तेरा     वन्दन //४//

हे चक्र सुदर्शन कर धारी














    हे चक्र सुदर्शन कर धारी
हे श्रीक्रष्ण हे गिरिधारी ;हे क्रष्ण मुरारी अविकारी /
तेरी इस माया नगरी में हैं भ्रमित देव मुनि संसारी /
       तुम प्रकृतिनटी  जग के नायक
                मैं राही तुम आश्रय दायक /
                     तुम धनुष और मैं हूँ सायक
                         मैं कर्म ;भाग्य तुम निर्णायक
हे असुर निकंदन त्रिपुरारी ;भव मोह हरो हे बनवारी /
तेरी इस माया नगरी में ;हैं भ्रमित देव मुनि संसारी //१//
       तुम मोहमुक्त निर्गुण ;समीर
           मैं मोहजाल में  फँसा कीर
               तुम आनंदघन ;मैं बहत नीर
                   कलिक्लेश करे मन को अधीर
हे अलखनिरंजन अघहारी ;बढ़ रहीं वृत्तियाँ असुरारी
तेरी इस माया नगरी में ;हैं भ्रमित देव मुनि संसारी //२//
        तुम निराकार ;हर कण कण में
               मैं भटक रहा हूँ हर  क्षण में
                       है सत्ता तेरी हर त्रण में
                            तुम  देते शक्ति समर्पण में
हे दुरागम्य अद्भुतकारी ;हे   लीलाधर     धर्माचारी /
तेरी इस माया नगरी में ;हैं भ्रमित देव मुनि संसारी //३//
         तुम सारथि हो मैं हूँ स्यंदन
              मन अश्व सँभालो यदुनंदन
                   तुम भक्तों के चित के चन्दन
                       युग करे तुम्हारा अभिनन्दन
हे चक्रसुदर्शन कर धारी ;मधुकर सदगुरु ;कलिमलहारी /
तेरी इस माया नगरी में ;हैं भ्रमित देव मुनि संसारी //४//

उदयभानु तिवारी "मधुकर"

Tuesday, 27 September 2011

चलो चलें शहर छोड़ गाँव की ओर

          

      चलो चलें शहर छोड़ गावों की ओर
मौसम   सुहाना   है मन  है किशोर /
चलो चलें शहर छोड़ गावों की ओर //१//

दूषित है नीर तपे शहर ज्यों अवा रे
गावों की झुरमुट    में ठंडी  हवा रे
हरियाली देख उठे     मनमें हिलोर
चलो चलें शहर छोड़ गावों की ओर //१//

वहाँ हँसें फूल   यहाँ   धूळ   के    गुबारे
बिजली है  यहाँ; वहाँ चाँद    औ सितारे
झुक झुक के गगन झरे पवन करे शोर
चलो चलें शहर छोड़ गावों की ओर //२//

सोंधी है  माटी    नदी    का    किनारा
दुर्गंधित नालों   से घिरा     शहर सारा
शहरों में घुटन   और   सक्रिय   हैं चोर
चलो चलें शहर छोड़ गावों की ओर //३//

गोरी जुन्हैया   की    दूधी    चदरिया
दूर दूर    गावों   में   देखे    नजरिया
वहाँ शांति शहरों में   वाहन   का शोर
चलो चलें शहर छोड़ गावों की ओर //४//

भोर भये गावों   में   चहकें    चिरैयाँ
सूरज की प्रथम  किरण   लेतीं बलैयाँ
मुतियन में नजरों  की उलझ गई डोर
 चलो चलें शहर छोड़ गावों की ओर //५//

शहरों में तपन वहाँ  पीपल की छैयाँ
मानवता गाँव बसी    शहरों में नैयाँ
मच्छर   समूहों   से  चले नहीं जोर
चलो चलें शहर छोड़ गावों की ओर //६//

खेतों की  फसलों   में    चलते फुहारे
सावन की छटा बिना   धानी   छटा रे
प्रक्रति छटा रसिकों का मन है चकोर
 चलो चलें शहर छोड़ गावों की ओर //७//

शहरों में बदल गईं गावों की गलियाँ
मन में उमंगों की   उठती   लहरियाँ
बढती मँहगाई   का   मिले नहीं छोर
  चलो चलें शहर छोड़ गावों की ओर //८//

धन दात्री देवी की दुनियाँ दीवानी
सरस्वती दूर जाय वन में हिरानी
मधुकर रे काजल बिन सूनी है कोर
    चलो चलें शहर छोड़ गावों की ओर //९//
 

                     उदयभानु तिवारी "मधुकर"                    





Saturday, 10 September 2011

दीप दान:

गीत:

दीप दान  

मधुकर
*                                                                                  
पानी में तैर चली, कागज की नाव री
दीप कहे धारा से, धीरे बहाव री

भटकें न राह कहीं, मेरे साँवरिया
देना प्रकाश उन्हें,  दियना रे भैया
पिया पास भेज रही प्रेम भरा भाव री
दीप कहे धारा से धीरे बहाव री //१//

चली जाए इठलाती बलखाती नैया
भँवरों के बीच नहीं कोई खिवैया
टेढ़ी है गैल कहीं तीखे कटाव री
दीप कहे धारा से धीरे बहाव री //२//

मधुर-मधुर हवा चली लगा गई ठुमका
अमवा की डारों के हिला गई झुमका
जुगनू के वृन्द मोसे  लगा रहे दाँव री
दीप कहे  धारा से  धीरे बहाव री //३//

हर हर हर बोल रहीं पीपल की पतियाँ
तरुवर से करन लगीं प्यार भरी बतियाँ
तीरे में कूद पात लगा रहे भाँवरी-
 दीप कहे धारा से धीरे बहाव री//४//

सपर रही सरिता में गोरी जुन्हैया
खिलन लगी कुमुद कली गाँव की तलैया
पनघट में भीर जुरी देखन को ठाँव री
दीप कहे धारा से धीरे बहाव री//५//

रुन झुन सी पावों में बाँधे पायलिया
नीर भरन चली लेके गागरी गुजरिया
लहरों के बीच कहीं फिसले न पावन री
दीप कहे धारा से धीरे बहाव री//६//

घंटों के शोर भये मंदिर के द्वारे
भोर भई जाग-जाग मुर्गा पुकारे
गाओ रे प्रात गीत बीती विभावरी
दीप कहे धारा से धीरे बहाव री ७//
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