योगी मन के गुण
काया रहे निरोगी जब यह मन योगी हो जाता है
सांसारिक सुख़ भोग योगियों के मन को नहिं भाता है
सुख़ औ दुख में भी वह साधक भेद नहीं कर पाता है
काम ;क्रोध ;मद ;लोभ ;मोह नहिं उसको कभी सताता है
लखे ब्रह्म की छवि प्राणी में वही ब्रह्म का ज्ञाता है
मान और अपमान सभी से परे पुरुष हो जाता है
सिद्धि असिद्धि सभी में योगी मन सम भाव दिखता है
मधुकर जन कल्याण भाव ही उसके मन में आता है
डॉ उदयभानु तिवारी "मधुकर "
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