पांडव वनवास
कवित्त
सुत हित घातक न तुम सन कोई तात
द्यूत में जो हारे राज्य दासता स्वीकारी है
सभा मध्य कीन्ह अपमान जाको नारी संग
उनको कराया मुक्त मति गई मारी है
कर व्याल घायल जो छोड़े मतिमंद नर
प्रतिपल घेरे ताको काळ अँधियारी है
निज करतूत से नसाये निज सुत अब,
निज करतूत से नसाये निज सुत अब,
होता है प्रतीत मृत्यु निश्चित हमारी है//१//
कियो दुर्योधन ने करुण विलाप जब
बोले धृतराष्ट्र भई चूक बड़ी भारी है
कहहु कवन विधि बिगड़ी बनेगी अब
कुमति शकुनिबोले बात ये बिचारी है
तात सभागृह में बुलाओ नरनाथ पुनि
द्यूत की दुबारा फिर कीजिये तैयारी है
दीजिये आदेश द्यूत हारे जो भी पक्ष वह
द्वादस बरस वनवास अधिकारी है //२//
तेरवें बरस कर गुप्त वास लौट पुनि
पावे निज राज्य और कोष प्रभुताई है
भेद की ये बात नहीं जाने कोई और तात
द्यूत नहीं हारूँ ऐसी सिद्धि मैंने पाई है
बिल में बिलायें बिन मारे सारे व्याल और
कंटक रहे न ऐसी योजना बनाई है
किन्तु एक शर्त और उनको सुनाओ यह
तब बन जाये बात तात जो नसाई है //३//
दोहा
उस तेरहवें वर्ष में ;यदि दिख जाय समक्ष /
तो पुनि द्वादस वर्ष वन ;वास करे वह पक्ष //
कवित्त
अंध नृपाल कुचाल चले फिर
द्यूत के हेत सन्देश पठाए
मान कुमंत्र गाँधार नरेश का
पाण्डु के पुत्र निमंत्र बुलाये
माने न काहू की बात कियो छल
चौपड़ खेल में राज्य छिनाये
भाग्य दियो नही साथ युधिष्ठिर
हार गये वन हेतु सिधाये //
धर्मधुरीण युधिष्ठिर राज और
भीम से वीर महा बलधारी
पार्थ धुरंधर होते हुये वन
वासी बने पुरुषार्थ बिसारी
दैव सहायक है उनका जो भी
कर्म करे कर्तव्य विचारी
कर्म से शुद्धि औ शुद्धि से भाग्य
प्रधान बने कहते गिरिधारी //
डॉ उदय भानु तिवारी "मधुकर"
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