Thursday, 3 November 2011

कविता


                     कविता

कल्पना के सागर को मथता ही रहता है 
नीरव में जन का मन मौन नहीं रहता है 
कल्पित कहानी वाणी  में  नहीं आई  जो 
कविता  में ढल के गुबार निकल पड़ता है //१//

भाव की गगरिया  जब ज्यादा भर जाती है 
कवि की यह कल्पना कलम से बह आती है 
शब्द अलंकारों से  सजधज  के  रसमय  हो 
शब्दों की श्रंखला   में  आकर जुड़  जाती है//२// 

पंक्ति बद्ध होते  ही  आप    सुलझ  जाती  है 
कवि के उदगार को साँचे में  ढाल  जाती है
होकर लिपि बद्ध अगर कागज पर आये तो 
ऐसी कवि   कल्पना ही कविता कहलाती है  //३//

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