कविता
कल्पना के सागर को मथता ही रहता है
नीरव में जन का मन मौन नहीं रहता है कल्पित कहानी वाणी में नहीं आई जो
कविता में ढल के गुबार निकल पड़ता है //१//
भाव की गगरिया जब ज्यादा भर जाती है
कवि की यह कल्पना कलम से बह आती है
शब्द अलंकारों से सजधज के रसमय हो
शब्दों की श्रंखला में आकर जुड़ जाती है//२//
पंक्ति बद्ध होते ही आप सुलझ जाती है
कवि के उदगार को साँचे में ढाल जाती है
होकर लिपि बद्ध अगर कागज पर आये तो
ऐसी कवि कल्पना ही कविता कहलाती है //३//
No comments:
Post a Comment