Friday, 19 August 2016



















मार्कण्डेय जी का माया दर्शन

कैसा होता है प्रलय ,मधुकर करत बखान /
मुनिवर मार्कण्डेय ने ,जो देखा निज ध्यान //१//

सुनकर मार्कण्डेय की स्तुति  श्री भगवान /
बोले हुआ प्रसन्न मैं ,हे ऋषिवर मतिवान //२//

ब्रह्मचर्य व्रत संयम ,अरु अनन्य  हुआ तव भक्ति /
सिद्ध हुई ,कल्याण हो ,जग से हुई विरक्ति //३//

हुआ मुदित मन मागिये,ऋषि अभीष्ट वरदान /
बोले मुनि जय जयति प्रभु ,अच्युत कृपानिधान //४//

स्थिर चित  कर योग से,शिव ब्रह्मादिक देव /
तव पदपंकज दरश  कर,धन्य हुए सुरदेव //५//

आज वही मम नैन  के ,सम्मुख प्रकटे आय /
धन्य बनाया है मूझे ,अनुकम्पा बरसाय //६//

दरशन में सब पा गया ,इच्छा रही न शेष /
अब क्या मागूँ आपसे ,कमलापति विश्वेश //७//

कमलनयन प्रभु आपकी,आज्ञा के अनुसार /
वर  में  चाहूँ  देखना , तव  माया  विस्तार //८//

कैसा  होता  है  प्रलय , लय  होते  हैं लोक /
अद्वितीय प्रभु आप में ,मिल जाते सुरलोक //९//

इसविधि मार्कण्डेय जी ,हरि  इच्छा अनुरूप /
पूजनकर याचन किया ,मुस्काये सुरभूप //१०//

एवमस्तु कहकर हुये ,श्री हरि अन्तर्ध्यान  /
बदरीवन आश्रम गये ,ऋषि करते गुणगान //११//

माया दरशन  लालसा ,में ही रहते लीन /
उसका ही चिंतन सदा ,करते ध्यान प्रवीण //१२//

छिति ,नभ ,पावक ,चन्द्र ,रवि ,पवन अम्बु में बिम्ब /
हरि का ही ऋषि देखते ,  निज  में हरि प्रतिबिम्ब //१३// 

जहाँ दृष्टि जाती वहीं ,हरि की झलक दिखाय /
मानस पूजन  अर्चना ,में क्षण रहे बिताय //१४//

हरि के प्रेम प्रवाह में ,मन डूबै  उतराय /
पूजन क्रम विस्मृत हुआ ,प्रेम न ह्रदय समाय //१५//

नदी पुष्पभद्रा गये ,एक दिवस मुनिराज /
हरि उपासना के लिए ,तट पर गये विराज //१६//

क्षण था संध्याकाल का ,ऋषि ने लखा विशाल /
बादल नभ  में घिर गये ,औचक अति विकराल //१७//

चली विकट आँधी लगे ,मेघ मचाने शोर /
लपक झपक कर दामिनी ,दमके चारों ओर //१८//

नयनों के ही सामने रथ की धुरी समान /
जलधारा गिरने लगी,नभ से भू पर आन //१९//

मुनिवर मार्कण्डेय को ,हुआ यही आभास /
सप्त र्सिन्धु  चहुँओर से, आ पहुँचे हैं पास //२०//

पवनवेग से सिन्धु में ,लहरें उठें विशाल /
भवँर  बनातीं लीलने ,जनु  खोलै मुँह काल //२१//

तीव्र लहर ध्वनियाँ करें ,श्रवणन को बेहाल /
बड़े मगर जलराशि में ,रह रह भरें उछाल //२२//

डूबी  प्रथवी जल बढ़ा ,फिर अम्बर की ओर /
रह रह दमके दामिनी ,झरें मेघ घनघोर //२३//

देखा ऋषि ने जल प्रलय ,हुई पूर्ण मन आश /
जल में व्याकुल जीव लख ,मुनि हो गये उदास //२४//

प्रथवी ,पर्वत ,स्वर्ग ,नभ ,तारागण समुदाय /
हुये सभी जल में विलय ,बचे  स्वयं मुनिराय //२५//

वे भी लहरों में फँसे ,दिखे खुले थे केश /
पागल अन्धों सम हुये ,भोग रहे थे क्लेश //२६//

लहर थपेड़े मारतीं, ऋषि डूबें उतरायँ   /
प्राण  बचाने के लिये , इधर उधर को जायँ //२७//

भूख ,प्यास संताप से ,मुनि मन हुआ अधीर /
मगर झपट्टा मारके ,घायल करें शरीर //२८//

हवा झकोरों से लहर,इधर उधर ले जाय /
अन्धकार  अज्ञान का ,उन्हें रहा भटकाय //२९//

ऋषिवर मार्कण्डेयजी ,थके हुये बेहोश /
फँसे भवँर में देखते ,जब आजाये होश //३०//

आपस  में जलजन्तु जब ,जलमें करते वार /
मुनिवर उनके बीच में ,फँसकर बनें  शिकार//३१//

कभी शोक से ग्रस्त तो ,कभी मोह में लीन /
कभी दुःख ही दुःख में ,दिखते थे वे दीन //३२//

कभी तनिक सुख भी मिले ,कभी दिखें भयभीत /
मर भी जाते थे कभी ,रोगी होयँ प्रतीत //३३//

हरि की माया  में फँसे ,मुनि करते संघर्ष /
इसी तरह जलराशि में ,बीते लाखों वर्ष //३४//

एकबार  भू के शिखर ,पर छोटा वटवृक्ष / 
हरे पात थे फल अरुण ,दिखता था प्रत्यक्ष //३५//

तरु ईशानी डार  पर, दोनारूपी पात /
जिस पर था लेटा हुआ ,शिशु सुन्दर मृदुगात //३६//

फैल रहा  था पास में ,शिशु से निकल प्रकाश / 
नीलाभा मरकतमणि, द्युति कर रही उजास //३७//

नीरज से शिशु के अधर ,मन्द मन्द मुस्कान /
मुख छवि नहिं वर्णत बने ,गर्दन  शंख समान //३८//

छाती चौड़ी नासिका, शुक सी सुघर दिखाय /
घुँघराली अलकावली ,भौहें रहीं रिझाय //३९//

लोल कपोलों पर लटें ,लटक रहीं थीं आय /
श्वास झकोरे मारकर ,उन्हें रही लहराय //४०//

कर्ण शंख आकार के ,उनमें पुष्प अनार /
लाल लाल थे झूलते ,बन कुण्डल साकार //४१//

शिशु होंठों की कान्ति थी ,मूंगों के सम लाल /
अरुणवर्ण कोने सुघर ,नयना बने विशाल //४२//

चितवन मन को खींचती ,नाभी थी गंम्भीर /
पीपल पाती तोंद छवि,मन को करे अधीर //४३//

जब वह शिशु साँसें भरे ,नाभी हिल हिल जाय /
उदर बीच पड़तीं बलें ,लख मुनि मन हरषाय //४४// 

नन्हें नन्हें करकमल अँगुली अतिकमनीय /
मुख में चूसत गहि चरण ,दृश्य महा रमणीय //४५//

अतिविस्मित मुनि देख यह ,तन की मिटी थकान /
कमल नयन हिय खिल गये ,मुख मेली मुस्कान //४६//

तन मन पुलकित हो गया ,लख अदभुत  शिशु भाव /
यह आया कैसे यहाँ ,ऋषि मन उपजे भाव //४७//

सरक चले यह पूछने ,सुन्दर शिशु के पास /
निकट पहुँच पाये नहीं,खींचा उसने श्वास //४८//

गये उदर में श्वास से ,ज्यों मच्छर घुस जाय /
लय के पहले सा सभी ,अंदर रहा दिखाय //४९//

मुनि अति विस्मित रह गये ,कुछ ना सके विचार /
उस शिशु के अन्दर लखा ,वैसा ही संसार //५०//

नभ ज्योतिर्मण्डल वही ,नदियाँ सिंधु पहार /
वर्ण अहीरी बस्तियाँ ,अरु उनके व्यवहार //५१//

द्वीप ,दिशायें, देवता,दैत्य ,वन्य औ देश /
नगर ,किसानी बस्तियाँ,गाँव वही परिवेश //५२//

नदी पुष्पभद्रा वही ,निज आश्रम निज मित्र /
तुंग हिमालय श्रंखला ,वैसा  विश्व विचित्र //५३//

रहे यही सब देखते ,शिशु ने छोड़ी श्वास /
बाहर आकर फँस गये ,पुनः प्रलय के त्रास //५४//
सिन्धु  मध्य भू भाग पर ,दिखा वही वटवृक्ष /
जिसके दोना पात  पर,लेटा  शिशु प्रत्यक्ष //५५//

रहा अँगूठा चूसता ,देखे ऋषि की ओर /
प्रेम मयी मुस्कान लख,ऋषि भए भाव विभोर //५६//

सभी इन्द्रियों से परे ,श्री हरि  शिशु के रूप /
क्रीड़ा करते ,नैन से, हिय उतरे सुरभूप //५७//      

आलिंगन करने बढे ,मुनिवर शिशु की ओर /
हरि के अन्तर्प्रेम की खींच रही थी डोर //५८//

योग के स्वामी हैं हरि ,ह्रदय वास स्थान /
पहुँच न पाये ऋषि हुआ ,वह शिशु अंतर्ध्यान //५९//

बरगदतरुवर औ  प्रलय,जल का सारा दृश्य /
उस अदभुत शिशु के सहित ,हिय से हुआ अदृश्य //६०//

ऋषि ने देखा हैं वहीं ,निज आश्रम आसीन /
प्रलय दृश्य वर्णन किया,मधुकर मन में लीन //६१//


                            डॉ पं  उदयभानु तिवारी मधुकर 
                            दत्त एवेन्यू फ्लैट न० ५०१ 
                             नेपियर टाउन जबलपुर 
                             मो० ९४२४३२३२९७      


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