बुद्धि का विकार
बुद्धि के विकार का गुबार देखते रहे
जो असार था उसे ही सार देखते रहे
जिस चमन गए वहीँ खिले सुमन सकुच गए
प्यास बुझ सकी न तेज ताप में झुलस गए
मृग मरीचिका के जल की ओर हेरते रहे
बुद्धि के विकार -----------------------------/
ढूढने चले जिसे वो कल्पतरु मिला नहीं
चक्रवात में फँसा हृदय कलश बुझा नहीं
आश की किरण के सूत्र धार घेरते रहे
बुद्धि के विकार ------------------------------
पुरुष प्रकृति के मेल से है जिन्दगी का सिलसिला
कहीं म्रदुल तरंग उठ रहा कहीं पै जलजला
प्रकृति की वादियों में जाँ निसार देखते रहे
बुद्धि के विकार ------------------------------
देखता फिरूँ जहाँ जहाँ प्रकृति चमन खिला
वीत राग मीत खोजते रहे नहीं मिला
विषय सयुक्त दिल से मन का तार जोड़ते रहे
बुद्धि के विकार ---------------------------//
भेद दे दिया जिन्हें उन्हीं से हम छले गए
जो बने थे मीत छोड़ वे सभी चले गए
कालचक्र की दुरूह मार झेलते रहे
बुद्धि के विकार ------------------------//५//
जागते ही स्वप्न में बसा नगर उजर गया
यान भर उड़ान लौट फिर वहीँ उतर गया
उदय मधुप नकार में अकार देखते रहे
बुद्धि के विकार ------------------------//६//
उदयभानु तिवारी मधुकर
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