ग्रीष्म ऋतु
मुरझाईं बगियों की बेलें सूख रहे हैं प्यारे चमन /
बीत गया मधुमास बसंती ;बढ़ी धूप से धरा तपन//
घर आँगन अरु बाग़ दहकते
कुम्हलाये तरुवर उपवन
तपी पवन के चलें झकोरे
उडी धूल चढ़ चली गगन
बरगद की छाया में सिमटी ;शीतलता अरु चैन अमन /
बीत गया मधुमास बसंती ; बढ़ी धूप से धरा तन //१//
नदी ताल हर स्रोत सुखाने
जल बिन विकल हुए जीवन
बढ़ी तृषा शीतल जल माँगे
बुझे नहीं तन ताप अगन
वीरानी छवि देख कहे मन सत्य यही जल है जीवन /
बीत गया मधुमास बसंती ;बढ़ी धूप से धरा तपन //२//
मृग मरीचिका में भागें मृग
भील पड़े तरु तरे मगन
भीगे तन बह चला पसीना
मलिन हुए हैं सारे वसन
मंद सुगंध समीर न डोले; उरग स्वास सी बहे पवन /
बीत गया मधुमास बसंती ;बढ़ी धूप से धरा तपन //३//
प्यासी धरती ने मुँहखोले
प्यासे चातक बोलें वन
दादुर ध्यान लगा कर बैठे
कब असाढ़ के आवें घन
वर्षाऋतु की बाट जोहते मुश्किल से बीतें हर क्षण /
बीत गया मधुमास बसंती ;बढ़ी धूप से धरा तपन //४//
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