Sunday, 16 October 2011

ग्रीष्म ऋतु

                     


  ग्रीष्म ऋतु
मुरझाईं बगियों की बेलें सूख रहे हैं प्यारे   चमन /
बीत गया मधुमास बसंती ;बढ़ी धूप से धरा तपन//
  घर आँगन अरु बाग़ दहकते
           कुम्हलाये तरुवर उपवन
               तपी पवन के चलें झकोरे
                    उडी धूल चढ़ चली गगन
बरगद की छाया में सिमटी ;शीतलता अरु चैन अमन /
बीत गया मधुमास बसंती ;  बढ़ी धूप   से धरा   तन //१//
नदी ताल हर स्रोत सुखाने
    जल बिन विकल हुए जीवन
         बढ़ी तृषा शीतल जल माँगे
               बुझे नहीं तन ताप अगन
वीरानी छवि देख कहे मन सत्य यही जल है जीवन /
बीत गया मधुमास बसंती ;बढ़ी धूप से धरा तपन  //२//
मृग मरीचिका में भागें मृग
        भील पड़े तरु तरे मगन
               भीगे तन बह चला पसीना
                     मलिन हुए हैं सारे वसन
मंद सुगंध समीर न डोले; उरग स्वास सी बहे पवन /
बीत गया मधुमास बसंती ;बढ़ी धूप से धरा तपन  //३//
प्यासी धरती ने मुँहखोले
     प्यासे चातक बोलें वन
          दादुर ध्यान लगा कर बैठे
                कब असाढ़ के आवें घन
वर्षाऋतु की बाट जोहते मुश्किल से बीतें हर क्षण /
बीत गया मधुमास बसंती ;बढ़ी धूप से धरा तपन //४//  

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