Monday, 31 October 2011

व्यंग


                       व्यंग 
कभी कभी मन में आता है नेता की कुर्सी पर आऊं 
जबलपुर से भोपाल और  दिल्ली की  दौड़   लगाऊं 
दिल्ली   की   दौड़   लगाऊं   सत्ता  में   आने   को 
जर्जर  देखूँ  जिसकी  कुर्सी  उसको  पकड़ हिलाऊं//१// 

साम दाम औ दंड भेद  से    झट  उसमें  चढ़ जाऊं 
हिलूँ  न उससे पाँच बरस   तक सबको मूर्ख बनाऊं 
सबको    मूर्ख    बनाऊं     कोरी     बातें     करके
आश्वासन दूँ जिधर उधर फिर पलट कभी न जाऊं //२//

अभियंता   बदनाम   हुए   अब उनसे आगे जाऊं 
सात पुस्त तक की पीढ़ी को अरबों खरब कमाऊं 
अरबों  खर्ब   कमाऊं   मिल   उद्योग   पतिन  से 
उधर   बढाऊं   दाम   बनाऊं   बात    जतन   से //३//

मिट रही गरीबी बेकारी यह कह सब को समझाऊं 
बिन राशन निज भाषण देकर सबकी क्षुधा मिटाऊं 
सबकी     क्षुधा     मिटाऊं    कोरी    बातें   करके 
जर्मन ;रूस  ;इंग्लॅण्ड  आदि शासन खर्चे पर जाऊं //४//

डाकुन का कर दूँ उन्मूलन पेपर में छ्पवाऊं 
परदे के पीछे से उनका सारा माल  गलाऊं
सारा   मॉल  गलाऊं  उनकी   रक्षा  करके 
बड़े बड़े देशों में मित्रो निज  उद्योग  चलाऊं //५//

तांत्रिक सभा बुलाय एक फिर अनुष्ठान करवाऊं 
रहे    सलामत  सत्ता   मेरी   ऐसा   यज्ञ रचाऊं 
ऐसा   यज्ञ   रचाऊं   कुर्सी    कभी    न    डोले 
विरोधियों   के   बीच  " उदय " की   तूती बोले //६//

No comments:

Post a Comment